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कार्तिक पूर्णिमा: छिन्दवाड़ा में कालीरात का मेला, आज से श्री गणेश, 3 दिसम्बर को समापन

अमावस की आधीरात मूर्ति रूप में प्रकट हुई थी महाकाली, पहले पटेल परिवार का था खेत , अब है महाकाली तीर्थ

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छिन्दवाड़ा के जैतपुर में है माता महाकाली का चमत्कारिक धाम ” कालीरात”

मुकुन्द सोनी ♦छिन्दवाड़ा मध्यप्रदेश-

दीपावली के बाद “मड़ई – मेला” हमारी संस्कृति की धरोहर है। इन्ही मे से एक है छिन्दवाड़ा का  “कालीरात का मेला”  जो एक सदी से भी ज्यादा समय से हर साल कार्तिक पूर्णिमा की तिथि पर लगता है। इस स्थल पर ” माता महाकाली” का स्वयं सिद्ध चमत्कारिक मन्दिर है। जिसे गांव के पटेलों ने माता के आदेश से बनाया था।इस बार यह मेला 27 नबम्बर से 3 दिसम्बर तक भरेगा। छिन्दवाड़ा जिले की जनपद मोहखेड के ग्राम ” गोरे घाट” के गांव ” जैतपुर” में यह मेला ” कुलबेहरा नदी के किनारे स्थित ” माता महाकाली” के मन्दिर परिसर में लगता हैं।

मन्दिर समीति के सरंक्षक रमेश पोफली, देवराव ठाकरे, अशोक ठाकरे, रघुनाथ सूर्यवंशी ने बताया कि मेले में हर साल हजारों की संख्या में श्रध्दालु आते हैं। इस बार मेले में रामकथा और भागवत की जगह ” भजन मंडली” के कार्यक्रम आयोजित किए गए हैं। गांवो की मंडलियां यहां रोज भजन प्रस्तुत करेगी और समापन पर तीन घण्टे का लगातार “” हरिनाम सत्ता” होगा। मेले में सैकड़ो की संख्या में दुकानें सजी है और अहीर नृत्य दल, हरिनाम विट्ठल संकीर्तन मंडलीय भी आकर्षण का केंद्र होंगे।

कालीरात का मेला छिन्दवाड़ा की सदियों पुरानी परंपरा में से एक है। हर साल कार्तिक पूर्णिमा पर यह लगता है और एक सप्ताह चलता है। पहले यह मेला एक महीना तक लगता था।  छिन्दवाड़ा-नागपुर मार्ग पर ग्राम लिंगा के पास जैतपुर में कुलबहरा नदी के किनारे स्थित माता काली के तीर्थ में लगता है
इस मेले की परंपरा की नींव जैतपुर के पटेलों ने रखी थी।

करीब एक सदी से यह मेले की “परंपरा” चली आ रही है। इस मेले के पीछे खासी मान्यता और ” चमत्कार” है। जो अब सम्भव नही है। मेला स्थल पर खेती की जमीन है।   यह मेला उस  जमीन पर ही  लगता है। यह जमीन गांव के पटेलों की है। उनके खेत से ही यहां मन्दिर में स्थापित ” माता काली” की मूर्ति खोदकर निकाली गई थी। आधी रात में यह मूर्ति खुदाई में प्रकट हुई थी इसलिए इस स्थल को कालीरात और लगने वाले मेले को कालीरात का मेला कहा जाता है।

ततैयों के हमलों से खेती करना हो गया था मुश्किल…

जैतपुर गांव में जिस स्थल पर मेला लगता है वह गांव के ही पटेल का खेत है।  गांव वाले बताते हैं कि करीब एक सदी पहले जब यहां पटेल परिवार खेती के कार्य मे लगा था तब उन पर एक साथ हजारो की संख्या में ततैयों ने हमला कर दिया था। इस घटना के बाद से जब भी इस जमीन पर पटेल परिवार खेती के लिए आया  तब -तब ततैयों ने हमला किया था। पटेल परिवार इन हमलों से  परेशान हो गया था फिर एक दिन कुछ ऐसा हुआ कि यह स्थान कालीरात बन गया।

माता काली ने दिया दाखिला ..

पटेल परिवार के ही  बुजुर्ग को एक रात सपने में माता काली ने दाखिला दिया था। उन्हें माता काली का  आदेश मिला था  कि मै मूर्ति रूप में तेरे खेत मे विराजमान हूँ।  मेरी मूर्ति को आधीरात में जमीन से बाहर निकाल और मन्दिर बनवाकर मेला लगवा।
जब पटेल परिवार ने आधीरात खेत मे बताए स्थल पर ख़ुदाई की तो वहां माता काली की मूर्ति मिली थी। यही मूर्ति यहाँ सदियों से मन्दिर में स्थापित है। कुछ इसी तरह का चमत्कार छिन्दवाड़ा के चौरई तहसील के ग्राम “कपूरदा” में ” माता षष्ठी” देवी का भी है। यहां माता की मूर्ति ” कुँए” से निकाली गई थी।

कालीरात में माता की मूर्ति को  मड़िया बनाकर खेत मे ही स्थापित किया गया था। जो अब ” महाकाली” का  चमत्कारिक बड़ा तीर्थ है। मूर्ति  अमावस की अंधेरी रात  में मिली थी। इसके बाद पूर्णिमा पर यहां मेला लगाया गया तब इस खेत मे ततैयों का हमला भी बंद हो गया तब से हर साल यहां कार्तिक पूर्णिमा पर  कालीरात पर मेला लगता आ रहा है। खास बात यह भी है कि यहां मेला स्थल की जमीन पर ” घास” तक नही उगती है जबकि आसपास खेतो में फसल लहलहाती है।

सबसे ज्यादा सोना-चांदी और बर्तन की बिक्री..

कालीरात  मेले में सबसे ज्यादा सोना-चांदी के जेवरों के साथ बर्तनों की बिक्री होती थी। मेले में सराफा की दुकानें सबसे ज्यादा होती थी। समय के साथ यहां मेले का स्वरूप बदल गया है। पहले सिवनी  ,छिन्दवाड़ा, बैतूल, बालाघाट इंदौर सहित अन्य जिलों के सराफा व्यवसायी भी मेले में आते थे।  बर्तन व्यवसाई भी यहां दूर-दूर से आकर दुकाने लगाते थे।  मिठाई खेल खिलौना ,झूला ,वस्त्र, सहित अनेक दुकानों से मेले की रौनक थी। खेती- किसानी के ओजारो की भी यहां बड़े पैमाने पर बिक्री होती थी। बढ़ते बाजारवाद ने इस मेले को भी निगल लिया है अब  किंतु  अब परम्परा में यह मेला हर साल लगता है

ग्वाले का भी है मंदिर..

कालीरात धाम में केवल महाकाली का ही चमत्कार नही कुलबेहरा नदी का भी चमत्कार छिपा है। यहां   ग्वाले का मंदिर भी है। इस मंदिर का भी अपना रहस्य है।  बताते हैं कि मन्दिर किनारे से बहने वाली कुलबहरा नदी में एक ग्वाले की गाय नदी में उतर गई थी।  ग्वाला जब गाय को नदी से बाहर निकालने नदी में उतरा तो वह गाय उसे नदी के नीचे ले गई जहां उसने साधुओं को जप-तप करते देखा था।  एक साधु से उसकी मुलाकात भी हुई थी।  जिसने यहां का रहस्य किसी को भी ना बताने के लिए कहा था। साधु ने कुछ सामग्री  ग्वाले को उपहार में दु थी। जब ग्वाला नदी से  बाहर आया तो उसके हाथ मे सोना था। सोना देखकर ग्वाले को लोभ आ गया था। उसने यह बात अपने साथियों को बता दी थी। दूसरे दिन वह फिर नदी में उतरा  था। लेकिन डूबने से उसकी मौत हो गई थी। मन्दिर परिसर में इस ग्वाले का भी मन्दिर है जो इस स्थल को तपोभूमि होने का प्रमाण देता है।

बन गया तर्पण स्थल..

कुलबहरा नदी के किनारे बना यह स्थल अब तर्पण घाट भी बन गया है। यहां नदी में मृत लोगो की राख का विसर्जन कर तर्पण किया जाता है।  प्रायः रोज ही यहां तर्पण स्नान के लिए लोग पहुँचते है। इस स्थल को समुचित विकास की दरकार हैं। माता काली के इस चमत्कारिक धाम की व्यवस्था के लिए अब ट्रस्ट बन गया है। कालीरात धाम प्रबंध कार्यकारिणी समिति इस धाम में नित्य पूजा अर्चना और कालीरात मेले की व्यवस्था करती है।


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